हिंदी स्वादानुसार
विदेश यात्रा करने की मेरी
इच्छा भारत भ्रमण कर पूरी हुई और विविध भाषाओं को सीखने का मेरा मोह, हिन्दी के अलग-अलग स्वरूपों को अनुभव करने में पूरी
हुई। मैं
अपने जीवन में हिन्दी से हमेशा जुड़ी रही हूं। मैं मूलतः कर्नाटक के बेंगलूरु से हूं। बेंगलूरु
के स्थानीय लोग अपनी दैनंदिन बातचीत में जितना कन्नड़ का प्रयोग करते हैं, उससे कहीं अधिक
हिन्दी का इस्तेमाल करते हैं। जैसे एक शिशु को अपनी मातृ भाषा को
सीखने में कोई कठिनाई नहीं होती है, वैसे ही हिन्दी सीखना मेरे लिए
कभी मुश्किल नहीं रहा। हमारी पाठशाला में 10वीं तक हिन्दी पढ़ाई जाती थी। मेरे
हिन्दी सीखने में पंचतंत्र की कहानियों की बड़ी भूमिका है। दरअसल, होता ऐसे
था कि पाठशाला में हर सप्ताह हमें एक क्लास में पंचतंत्र की कहानियां सुनानी होती
थीं। हम वो कहानियां अच्छे से सुना पाएं, इसलिए अच्छे से पढ़ते और याद करते
थे। अपनी प्रस्तुति से अपने सहपाठियों पर प्रभाव छोड़ पाएं, इसलिए
तैयारी भी अच्छे से करते थे। इस तरह मैं बचपन से ही हिन्दी से जुड़ गई और हिन्दी
मुझसे।
वह दूरदर्शन का दौर था। उस
ज़माने में दूरदर्शन के अलावा दूसरे चैनल नहीं थे। मनोरंजन के नाम पर डीडी-1 और डीडी-2 ही हुआ
करते थे। इसलिए टीवी देखना होता था तो दूरदर्शन ही एकमात्र विकल्प था। दूरदर्शन पर
हर शनिवार की रात रामानंद सागर की रामायण और हर रविवार सुबह 9 बजे महाभारत का हमें सप्ताह भर से इंतज़ार रहता था। इन
दोनों धारावाहिकों से जहां एक तरफ़ हमारी हिन्दी समृद्ध हो रही थी, तो वहीं
अनजाने में ही हमारा सांस्कृतिक और पौराणिक ज्ञान भी बढ़ रहा था। इन दोनों धारावाहिकों से मेरा हिन्दी शब्द भंडार समृद्ध हुआ और इस तरह दूरदर्शन
मेरा अगला हिन्दी गुरु बन गया।
इस तरह बचपन बीता रामायण-महाभारत
देखते हुए। थोड़े बड़े हुए, समझदारी आई तो हिन्दी सिनेमा देखने
लगे। धीरे-धीरे परिवार के साथ हर महीने एक फिल्म देखने जाने
लगे। हालांकि आज ऐसी फिल्म कम ही आती हैं, जिन्हें परिवार के साथ देखा जा सके।
बहरहाल! रंगोली और चित्रहार के गाने सुनने लगे और
गुनगुनाने लगे। मुझे उस दौर में चित्रहार में देखे-सुने गाने
आज भी याद हैं और कभी बचपन में जाना होता है तो यूट्यूब अच्छा ज़रिया बन गया है। मनोरंजन
के साथ-साथ
देश-दुनिया
में क्या हो रहा है, यह जानने का सबसे अच्छा ज़रिया था दूरदर्शन पर आने
वाला आधे घंटे का समाचार बुलेटिन। आकाशवाणी की सखी-सहेली मेरी
हिन्दी की सखी थी। इस तरह दक्षिण भारत के एक हिस्से में रहने वाली लड़की हिन्दी के
साथ-साथ
बड़ी हुई और हिन्दी जीवन का अभिन्न अंग बन गई। मेरे जैसे अनेक दक्षिण भारतीय हैं, जो इसी तरह
हिन्दी के साथ बड़े हुए।
बहुत से लोगों का मानना है
कि दक्षिण भारतियों की हिन्दी में स्पष्टता और सहजता नहीं होती है। यदि आपको भी
ऐसा लगता है तो ग़लत लगता है। मेरा मानना है कि हर एक प्रांत में प्रयोग होने वाली
हिन्दी का अपना एक अलग ज़ायका होता है। उस पर उस प्रांत की स्थानीय भाषा का प्रभाव
रहता है। ज़िंदगी ने मुझे इन ज़ायकों को चखने का एक से बढ़कर एक मौका दिया है। मेरी
मातृभाषा मराठी है। मैं रही कर्नाटक में हूं, तो कन्नड़ती
बन गई। बड़ी हुई। शादी हो गई हैदराबादी से। इस नाते मुझे हैदराबादी
ज़ायके वाली
हिन्दी को जीने का मौका मिला। यह ज़बान हिन्दी और उर्दू का मिश्रण है। हालांकि
हिन्दी और उर्दू बहनों की तरह ही हैं, जिनका मिश्रण लखनऊ, भोपाल, आगरा जैसे
कई शहरों में देखने-सुनने को मिलता है। “क्या मियां बड़ा-बड़ा बाताँ
करता”,”मेरेकु परेशान नक्को करो”,”ज़रा
हल्लु चल मामा”, “उनों ऐसेच बोलते” जैसा
बात करने का अंदाज़ उनकी ज़बान में ही अच्छा लगता है। और कुछ दिन वहां बिता लें, इसे जी लें, तो यही
ज़ायका आपकी ज़बान पर भी बैठ जाता है। और यह इतना स्वाभाविक होता है कि आपको इसके
लिए अलग से कोई प्रयास नहीं करने पड़ते हैं, बल्कि यह ख़ुद-ब-ख़ुद ज़बान
पर चढ़ जाता है।
अब हैदराबाद के किसी नवाबी
परिवार में तो शादी हुई नहीं, सो काम-धंधे के
सिलसिले में शहर बदलने ही पड़ते हैं। पति का तबादला हुआ तो हम पहुंच गए ‘अमदावाद’यानी अहमदाबाद। करीबन दो साल हमें गुजराती मिश्रित हिंदी को चकने का
अवकाश मिला | यहां की गुजराती
मिश्रित हिन्दी तो उनके पकवानों जितनी ही मीठी है। उनके
दैनंदिन बातचीत में प्रयोग होने वाली “बरोबर छे”, “बोबड़ी बंद कर”,”खबर नै”,
“कोई वांदा नहीं”, जैसी बातें तो हिन्दी का अलग ही
रूप दर्शाती हैं और ऐसे बोल तो हर किसी को समझ भी आते हैं। शुरू-शुरू में
जब ये वाली हिन्दी सुनी तो यही लगा कि ये तो हिन्दी जैसी ही है। मैं तुरंत यहां के
लोगों से, यहां की मिट्टी से जुड़ गई। भाषा की ताकत का जैसे
एहसास हुआ।
दो साल बाद काम ही हमें ले
पहुंचा दिल्ली। दिल्ली पहुंचने से पहले ही सुना था “दिल्ली है दिलवालों की”।
अब यहां की हिन्दी को सुना तो यह पंजाबी, हरियाणवी की
मस्ती और प्यार से भरी महसूस हुई। ‘कर लियो’, ‘चले जइयो’, ‘इधर अइयो’, ‘जुगाड़’, ‘ओए काके’ जैसे
स्लैंग तो दिल्ली की चटपटी हिन्दी में ही सुनने को मिलते हैं। चांदनी
चौक की चटोरी गली की चटपटी कचोरी का चटपटापन यहां की हिन्दी में घुला-मिला है।
दिल्ली के बाद हमें पूर्वोत्तर
के अरुणाचल प्रदेश की राजधानी इटानगर में रहने
का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हिमालय की तलहटी की प्राकृतिक सुंदरता, वहां के लोगों की भाषा में भी झलकती है। यहां बोली जाने वाली
हिन्दी में व्याकरण ने तो जैसे हिमालय की गोद में विश्रांति ले रखी है। जब वे बोलते
हैं “हमें हिन्दी थोरा-थोरा आती है”, “हम हिन्दी जानती है, बोल भी
सकती हूँ, लिख भी सकती हूँ” तो
यह बोलते हुए उनका चेहरा चमक उठता है। हर एक जनजाति की हिन्दी का अपना ही एक
संस्करण होता है। जो भी है, उनकी मुग्ध कर देने वाली प्यारी
हिन्दी में इतना आकर्षण है कि, किसी का
भी मन मोह ले। हिन्दी बोलने और सीखने का इनका श्रम और रुचि सराहनीय और प्रेरक है।
वर्तमान में मेरा स्थायी पता
है दक्षिण भारत का ख़ूबसूरत केंद्र शासित प्रदेश “पुडुचेरी”।
यहां हिन्दी बोलने वाले लोग तो लगभग न के बराबर हैं। वहां रहने
और बात करने से पता चला कि दो-तीन साल पहले तक तो स्थिति यह थी कि
हिन्दी में बात करने वालों को अनिवासी मान लिया जाता था। लेकिन इन दिनों वहाँ की परिस्थिति भी धीरे-धीरे बदल
रही है और आज की पीढ़ी में हिन्दी के महत्त्व और उपयोगिता के बारे में
जानकारी बढ़ रही है। व्यवसाय, विद्याभ्यास और अन्य कई वजओं के
कारण यहाँ के स्थानीय लोग दूसरे शहरों में बस रहे है और हिंदी प्रयोग का विस्तार
बढ़ा रहे है.
इन सारे शहरों में कुछ वक़्त
गुज़ारने के बाद आज मैं काम के ही सिलसिले में मुंबई में बसी हूं, जो बॉलीवुड
और आर्थिक राजधानी है। यहां के लोगों की मातृभाषा
भले ही मराठी है, लेकिन उनसे बात कीजिए तो लगता ही नहीं कि वे अहिन्दी भाषी
हैं। अपना मानकर चलो तो सुख-शांति से यहां गुजारा कर
सकते हैं। “शाणपट्टी नहीं करने का” “ये... ग़लती किया
तो सॉरी बोलने का”, “सॉरी बोल दिया तो शांत
बैठने का और सामने वाले के भेजे को हाइपर नहीं करने का” जैसी छोटी-छोटी ‘लोकल’बातों में मुंबई में रहने और गुज़र-बसर करने
का एक पूरा दर्शन छिपा हुआ है।
मेरे लिए
तो भारत एक पाकशाला है और हिन्दी एक स्वादिष्ट मिष्ठान्न।
हर प्रांत की हिन्दी अपने स्वादानुसार कहीं तीखी,तो कहीं मीठी है, कहीं मसालेदार है, तो कहीं
झन्नाटेदार है। मैं देश के हर कोने में रही, और हर जगह के लोगों से जुड़ने का
मेरा माध्यम हिन्दी ही रही। मेरी हिन्दी, सबकी हिन्दी है, जो इतनी
समृद्ध है, जिसमें इतना सामर्थ्य है कि यह लोगों को अपना बना
देती है।
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